सपा - बसपा के रहम ओ करम पर टिकी है रालोद
वीर रस के कवि भूषण की एक कविता की पंक्तियां हैं -- ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी,ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं। कंद मूल भोग करैं, कंद मूल भोग करैं,तीन बेर खातीं, ते वै तीनबेर खाती हैं॥ इसका अर्थ है, जो ऊंचे महलों में रहा करतीं थी वो अब ऊंचे घोर मंदर के अन्दर अर्थात गुफाओं में रहतीं हैं. जो तीन बार खाना खाती थीं वो अब तीन 'बेर' ( जंगली फल) खाकर गुजारा कर रही हैं . राजनीति में कुछ इसी तरह की दशा चौधरी अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी की हो चुकी है.

     चौधरी चरण सिंह के बाद उनके बेटे चौधरी अजित सिंह राजनीति में आए. चौधरी चरण सिंह की छवि को ध्यान में रखकर शुरुआत में लोगों ने चौधरी अजित सिंह को गंभीरता से लिया मगर जैसे-जैसे समय बीतता गया. चौधरी अजित सिंह का अवसरवादी चेहरा लोगों के सामने आने लगा. यह जग जाहिर हो गया कि राजनीति में गंभीरता और विश्वसनीयता से उनका कोई सरोकार नही है. दल – बदल में माहिर चौधरी अजित सिंह को जिस सरकार में अवसर मिला, उस सरकार में उन्होंने मंत्री पद हासिल करने में कोई हिचक नहीं दिखाई. अपने राजनीतिक करियर में चौधरी अजित सिंह दल – बदल करते रहे और जनता की नजर में उनकी अहमियत घटती चली गई. आज आलम यह है कि सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में चौधरी अजित सिंह सपा- बसपा के साथ समझौता करके मात्र तीन सीट पर चुनाव लड़ रहे हैं.

 

    चौधरी चरण सिंह के बेटे चौधरी अजित सिंह से लोगों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहुत उम्मीदें थीं मगर चौधरी अजित सिंह ने सब कुछ मटियामेट कर दिया. जिस समय सपा – बसपा का समझौता हो रहा था. उस समय हालत यह थी कि मायावती, चौधरी अजित सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) को ज्यादा भाव देने को तैयार नहीं थीं मगर अखिलेश यादव को यह लग रहा था कि चौधरी अजित सिंह को शामिल कर लेने से 'जाट' वोट उनके साथ आ जाएगा और 'जाटों' की मदद से सपा की डूबती नाव को कुछ सहारा मिल जाएगा.

   चौधरी अजित सिंह की पार्टी - राष्ट्रीय लोक दल को सपा - बसपा गठबंधन में किसी तरह स्थान मिल पाया. गठबंधन के बंटवारे में रालोद को तीन सीट मिलीं. दो सीट तुरंत पिता-पुत्र ने आपस में बांट लीं. जिस परिवार में चौधरी चरण सिंह जैसे नेता हुए हों. उस परिवार के चौधरी अजित सिंह और जयन्त चौधरी की राजनीति सपा और बसपा के रहम- ओ - करम पर टिकी हुई हैं.

    अखिलेश यादव के काफी अनुनय – विनय करने पर मायावती ने रालोद को गठबंधन में शामिल करने की हामी भर दिया. सहमति बन जाने के बाद अखिलेश यादव ने अपने हिस्से की सीट में से रालोद को तीन सीटे दीं। काफी मशक्कत के बाद मिली तीन सीटों में से दो पिता – पुत्र ने आपस में बांट लीं. मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट से चौधरी अजित सिंह और बागपत से उनके बेटे जयंत चौधरी चुनाव मैदान में उतरे. मथुरा से नरेंद्र सिंह को चुनाव मैदान में उतारा गया.

 

   उल्लेखनीय है कि 'जाट परिवार' में जन्मे चौधरी चरण सिंह ने स्वाधीनता के समय राजनीति में कदम रखा. वर्ष 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन से प्रभावित होकर उन्होंने गाजियाबाद में कांग्रेस कमेटी का गठन किया. 1930 में महात्मा गांधी द्वारा चलाये गए सविनय अवज्ञा आन्दोलन में शामिल हुए और नमक कानून तोड़ने के लिए लोगों को प्रेरित किया. चौधरी चरण सिंह ने गाज़ियाबाद की सीमा से लगी हुई हिंडन नदी पर नमक बना कर अंग्रेजों को चुनौती दी थी. अंग्रेजों ने चौधरी चरण सिंह को गिरफ्तार कर लिया और नमक क़ानून तोड़ने के जुर्म में उन्हें 6 महीने की सजा हुई. सजा पूरी कर के चौधरी चरण सिंह जब जेल से बाहर आये तब वह महात्मा गांधी के स्वंतत्रता संग्राम में पूर्ण रूप से शामिल हो गए. सत्याग्रह आन्दोलन में चौधरी चरण सिंह वर्ष 1940 में फिर गिरफ्तार हुए और करीब साल भर जेल में रहने के बाद जेल से रिहा हुए.


इंदिरा गांधी ने समर्थन देकर चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनवाया और विश्वास मत साबित करने से पहले ही समर्थन वापस ले लिया था -

चौधरी चरण सिंह दो बार -वर्ष 1967 और वर्ष 1970 - में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. उसके बाद वो केन्द्र सरकार में मंत्री बने . जनता पार्टी टूटने के बाद इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह के साथ ऐसा भद्दा मजाक किया जो आज तक राजनीति में कभी किसी ने नहीं किया. इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह को समर्थन देने की घोषणा कर दी. सी.पी.आई ने भी चौधरी चरण की पार्टी को समर्थन कर दिया. उस समय के राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने 28 जुलाई 1979 को चौधरी चरण सिंह को प्रधानमत्री पद की शपथ दिलाई और 20 अगस्त तक बहुमत साबित करने का समय दिया. एक महीने के भीतर ही इंदिरा गांधी ने 19 अगस्त 1979 को समर्थन वापस ले लिया. अभी तक के इतिहास में यह अभूतपूर्व है. लोकसभा में विश्वास मत पर चर्चा कराए बगैर प्रधानमंत्री के पद से चौधरी चरण सिंह ने स्तीफा दे दिया. इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह को बतौर प्रधानमंत्री ,लोकसभा में प्रवेश नहीं करने दिया. ऐसा भद्दा मजाक आज तक राजनीति में ना इसके पहले कभी हुआ था और ना उसके बाद फिर कभी हुआ. 22 अगस्त 1979 को लोकसभा भंग कर दी गयी. उसके बाद मध्यावधि चुनाव हुए. जनता पार्टी के आपसी मतभेद से जनता नाराज हो चुकी थी, इसका फ़ायदा उठाने में इंदिरा गांधी सफल रहीं और 14 जनवरी 1980 को प्रधानमंत्री बन गईं.