यह लेख डॉक्टर पी0वी0 वर्तक ने 31 अगस्त 1986 को एक सेमिनार में भाषण देते हुए पढा था, जिसका शीर्षक था -
"प्राचीन भारत में अस्त्र शस्त्र प्रणाली"
'Armaments in India through the Ages'
प्रस्तुत हैं उस सम्बोधन के कुछ अंश -
आर्य आक्रमण
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ऐसा माना जाता है कि आर्यों का आक्रमण ईसा से 1000 वर्ष पहले भारत पर हुआ और यह मत व्हीलर के द्वारा दिया गया जो कि स्वयं एक अच्छे पुरातत्वविद थे। किंतु यह आधारहीन है। आर्य भारत के मूल निवासी थे और 24000 ईसा पूर्व ऋग्वेद की रचना कर चुके थे। प्रोफेसर मैक्स मूलर ने कहा था कि वेद के विद्वानों की हर पीढ़ी का यह दायित्व है कि वे यथासंभव ऋग्वेद के प्रत्येक अनसुलझे भाग को सुलझायें ताकि आने वाली पीढ़ियां इसमें मौजूद वैज्ञानिक ज्ञान को प्राप्त कर सकें।
प्राचीन शल्यविज्ञान
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अब मैं आपको अपने खुद के अनुभव के बारे में बताऊंगा। 1956 में एम0बी0बी0एस0 की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं एम0एस0आई0 कर रहा था तथा प्लास्टिक सर्जरी यूनिट में कार्यरत था।1950 और 60 के दशक में प्लास्टिक सर्जरी एक नई चीज थी। इसी दौरान एक मरीज की नाक की प्लास्टिक सर्जरी की जानी थी। 1957 की बात है, मैं राईनोप्लास्टी के एक सर्जन के सहायक का कार्य कर रहा था और हमने मरीज के पेट से स्किन-ट्यूब इस्तेमाल करने का फैसला किया जैसा कि हमें बताया गया था। लेकिन ऐसा करने में हमें 10 ऑपरेशन करने पड़े। उस दौरान मैं सुश्रुत की पुस्तक पढ़ रहा था, जिसमें सुश्रुत ने माथे की त्वचा के द्वारा नाक की प्लास्टिक सर्जरी का वर्णन किया था। मेरे सुझाव को सर्जन ने यह कहकर खारिज कर दिया कि संस्कृत के उदाहरण मत बताओ यदि अमेरिकी यह जर्मनी का कोई सन्दर्भ हो तो कहो। इस घटना के 12 वर्ष बाद 1968 में एक जर्मन सर्जन ने सुश्रुत की पुस्तक पढ़कर प्रयास किया और बहुत सफल रहा। उसने इस पर शोध पत्र लिखे।आज भारत समेत सारा विश्व इसी तरह नाक की प्लास्टिक सर्जरी करता है।
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क्रोमोजोम की खोज 1890 में की गई जबकि महाभारत में क्रोमोजोम का जिक्र 'गुणाविधि' के रूप में है।
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1972 तक चिकित्सा विज्ञान की दुनिया यह मानती थी कि गर्भस्थ शिशु का हृदय 5 महीने से धड़कना शुरू होता है। 1971 में मैंने भागवत और ऐतरेय उपनिषद के आधार पर कहा कि यह दूसरे महीने से ही शुरू कर देता है तो मेरे ही साथियों ने मजाक उड़ाया यह कहकर कि व्यास मूर्ख थे। लेकिन 1972 में 'मेडिकल टाइम्स' में एक रिपोर्ट छपी जिसमें डॉ0 रॉबिंसन, क्वीन मदर्स हॉस्पिटल, ग्लासगो, इंग्लैंड ने कहा कि गर्भस्थ शिशु का हृदय दूसरे महीने से ही कार्य करना शुरू कर देता है।
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कुतुब मीनार के पास मौजूद लौह स्तंभ का उदाहरण ही देखिये, 2000 वर्षों से यह लौह स्तंभ बिना जंग खाए खुले आसमान के नीचे धूप और वर्षा का सामना करने के बावजूद टिका हुआ है। इसमे कौन सी टेक्नोलॉजी थी?
महाभारत काल की वैज्ञानिक उपलब्धियां
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महाभारत का युद्ध मेरी गणना के अनुसार 16 अक्टूबर 5561 ईसा पूर्व में हुआ। इसमें वेदव्यास ने 3 नए ग्रहों के बारे में स्पष्टरूप से लिखा है। जिनके नाम है - श्वेत श्याम तथा तीव्र। इतना ही नही, इनकी स्पष्ट स्थिति भी दी गई है। ये ग्रह और कोई नहीं बल्कि यूरेनस, नेपच्यून और प्लूटो हैं।
महाभारत में सूक्ष्मदर्शी का भी विवरण मिलता है।
सूर्यकांत मणि का इस्तेमाल अग्नि पैदा करने में किया जाता था। यह अवश्य ही कोई उत्तल दर्पण (Convex Lense) रहा होगा।
परमाणु विज्ञान
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भागवत पुराण बताता है कि दो या तीन परमाणुओं से मिलकर एक अणु बनता है। जॉन डाल्टन ने 1807 में अदृश्य अणुओं की उपस्थिति का सिद्धांत दिया था जबकि भागवत में इसका वर्णन बहुत पहले से मौजूद है। भागवत हमें बताता है कि परमाणु एक दूसरे से कभी नही जुड़ते किंतु जुड़े होने का आभास अवश्य पैदा करते हैं। इनका कोई गुणधर्म उस पदार्थ को नही मिलता है जिसका यह निर्माण करते हैं। भागवत में इन परमाणुओं के भीतर मौजूद पदार्थ को 'परम महान' नाम दिया गया है। आज 60 से अधिक ऐसे पदार्थों की खोज की जा चुकी है। भागवत कहता है परमाणुओं के भीतर ही ब्रह्मा का वास है। इसका अर्थ यह हुआ कि इन परमाणुओं से निकलने वाली ऊर्जा ही ब्रह्मास्त्र रूप में प्रयोग की जाती थी।
ध्वनि विज्ञान
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प्रस्वप् अस्त्र का प्रयोग केवल भीष्म जानते थे। इस अस्त्र का प्रयोग उन्होंने परशुराम पर किया था। इस अस्त्र के प्रयोग से गहरी निंद्रा आ जाती थी। एक ऐसे ही अस्त्र का प्रयोग महाभारत के विराट पर्व में अर्जुन द्वारा किया गया जिसे सम्मोहन अस्त्र कहा गया। अर्जुन ने इसका प्रयोग बिना किसी धनुष या बाण की सहायता के केवल शंखध्वनि से किया था। इसकी ध्वनि को सुनकर कौरव निंद्रा अवस्था में चले गए थे।
यहां पर यह बता देना चाहता हूं कि ओम की ध्वनि इसी प्रकार के संगीतमय तरंगों को पैदा करती है जिससे निंद्रा का आभास होता है। साथ ही ओम की ध्वनि तथा शंख ध्वनि एक जैसी सुनाई पड़ती है।
Nerve Gas!!
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नारायणास्त्र का प्रयोग महाभारत के द्रोण पर्व में अश्वत्थामा के द्वारा किया गया, जिसके परिणाम स्वरूप आसमान में की असंख्य अग्निबाण प्रकट हो गए। सब कुछ इन्हीं बाणों के द्वारा ढक दिया गया। आसमान में लोहे की कीलें जैसे दिखने वाले नक्षत्रों के पैदा होने और चमकने का वर्णन है। इसके अलावा गदा, चक्र, शतघ्नी जैसे अस्त्र प्रकट होने लगे। कृष्ण इस अस्त्र के बारे में जानते थे, इसलिए उन्होंने सारे अस्त्र-शस्त्र त्याग कर रथ से नीचे उतरते को कहा। यही तरीका इस अस्त्र से बचा सकता था। भीम को छोड़कर सारे नीचे उतर गए। भीम के शरीर पर चमकदार अग्नि के गोले चिपक गए। भीम संघर्ष करता नजर आने लगा। लेकिन अस्त्र और अधिक ताकतवर होता चला गया। भीम का शरीर अग्नि की लपेट में आ गया। उसे बचाने के लिए अर्जुन ने वरुणास्त्र का प्रयोग किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। इसलिए अर्जुन और कृष्ण आग के भंवर में कूदकर भीम को रथ से नीचे खींच लाए। इस तरह भीम के प्राण बच सके।
उपरोक्त वर्णन से यह प्रतीत होता है कि यह संभवतः किसी प्रकार की हल्की ज्वलनशील गैस रही होगी इसीलिए यहां 6 फीट जमीन से ऊपर असर कर रही थी। शायद यह किसी प्रकार की नर्व गैस रही होगी क्योंकि नर्व गैस के प्रभाव में आने पर जितना अधिक हम सांस लेते हैं उतनी ही अधिक मात्रा में इस गैस से नुकसान होता है। इसीलिए कृष्ण ने तुरंत युद्ध रोकने को कहा साथ ही पसीने के साथ यह तेजी से क्रिया करती है इसी करण भीम को भारी नुकसान हुआ। अमेरिका ने अपना पहला नर्व गैस प्रयोग 1971 में चोरी छुपे किया था। इस गैस के प्रभाव से लाखों लोग मारे जा सकते हैं।
मिसाइल तथा प्रक्षेपास्त्र
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एंटी-मिसाइल का प्रयोग भी महाभारत में 'अवपोतिका' नाम से किया जाता था। इस श्रेणी में सबसे प्रमुख नाम आता है - पाशुपतास्त्र का। किसी भी शास्त्र को काटने के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता था।
इसके अलावा अर्जुन एक निमिष में 500 वाण छोड़ सकता था। एक निमिष का मतलब होता है 0.2 सेकेंड्स। आधुनिक मशीन गन भी 1 मिनट में सिर्फ 600 राउंड ही छोड़ सकती है। ऐसे में अर्जुन के पास अवश्य ही कोई शक्तिशाली यंत्र मौजूद था। अर्जुन ने जयद्रथ के रथ के घोड़ों को 2 मील की दूरी से ही मार डाला था(अरण्यपर्व) क्या यह किसी साधारण धनुष से यह सम्भव था? इसके लिए बहुत शक्तिशाली दूरदर्शी यंत्र की भी आवश्यकता पड़ती है।
प्रकाश की गति और ऋग्वेद
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प्रकाश के वेग को भी ऋग्वेद के टीकाकर सायन ने आधे निमिष में 2202 योजन बताया है। यह वेग 187084 मील प्रति सेकंड ठहरती है। आधुनिक गणनाओं के आधार पर आज 187352.5 मील प्रति सेकंड है। प्रकाश की तीव्र गति के कारण समय अंतराल में व्याप्तियां भी व्यास ऋषि को मालूम थीं। महाभारत में अंतरिक्ष यात्रा का एक विवरण प्राप्त होता है राजा का ककुद्मी अपनी विवाह योग्य कन्या रेवती को लेकर तक ब्रह्मलोक तक जाने में जितने पल बीते उतनी देर में है 27 चतुर्युगी बीत चुकी थीं किंतु वापस पृथ्वी पर पहुंचे तक भी रेवती की आयु में कोई परिवर्तन न था। व्यास के अनुसार ऐसा प्रकाश की तीव्र गति के कारण संभव हुआ। लगभग ऐसा ही कुछ कई शताब्दियों बाद आइंस्टीन ने बताया है।
रामायण का विश्व भूगोल
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रामायण का समय मेरे अनुसार 7323 ईसा पूर्व निर्धारित किया गया है। ऐसा लगता है कि रावण यमलोक अर्थात अंटार्कटिका क्षेत्र में अपनी सेना सहित गया था। दैत्यों के द्वारा दक्षिण-अमेरिका तक जाने का विवरण है। रामायण में पूरे विश्व का भूगोल समाया हुआ है। आधुनिक पेरू के प्रशांत तट पर स्थित अमेरिका के एक दैदीप्यमान (Phosphorescent) त्रिशूल एंडीज पर्वत पर अंकित मिलता है। यह त्रिशूल आकाश की तरफ प्रकाश फेंकता है। आकाश से ही इसे देखा जा सकता है धरती से नहीं। इसीलिए वैज्ञानिकों का मानना है इसे बनाने वाले अंतरिक्ष यात्री रहे होंगे। लेकिन वे कौन थे, इसका जवाब नहीं मिलता। रामायण में एक जगह इसका विवरण मिलता है। इससे पता लगता है कि रामायण काल के भारतीय प्रशांत महासागर स्थित पेरू के अंतिम तट तक तक भी गए थे। पेरू से आगे की दिशा में अभी हम जाएं तो हमें आज भी एरोड्रम के निशान (नाज़का लाइन्स) मिलते हैं। यह स्थान कोलंबिया में मौजूद है जिस पर आज भी हवाई जहाज के मॉडल अंकित है। अमेरिकन एविएशन डिपार्टमेंट ने खोजबीन के बाद यह बताया है कि ये निशान सुपर सोनिक एयरक्राफ्ट के ही हो सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि रामायण काल में इंद्रजीत ऐसे ही सुपरसोनिक एयरक्राफ्ट का प्रयोग करता था।
स्पेस क्राफ्ट
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ऋग्वेद में ही बिना घोड़ों की सहायता चलने वाले रथों का वर्णन प्राप्त होता है जो जल, थल नभ में चल सकते थे। इन रथों के बारे में कोई और वर्णन वहां नही मिलता। महाभारत के वानप्रस्थ पर्व में इंद्र के रथ का कुछ वर्णन प्राप्त होता है। जब इंद्र का रथ नीचे उतरा तो वह बादलों को चीरता हुआ आसमान से अंधकार को धकेलता हुआ, आंधी का शोर मचाता उतरा था। उसमें से प्रकाश की तरंगें (विद्युत), अशनिचक्रयुक्त हुद ( तोप के गोले), गूढ़ (मिसाइल) तथा वायुस्फोटः सनिर्घात (गैसों का प्रस्फोटन) प्रकट हो रहे थे। यह किसी अंतरिक्ष यान के उतरने जैसा वर्णन है। दस सहस्र अश्वों द्वारा उसे खींचे जाने का वर्णन है। (यह असंभव वर्णन केवल रथ की शक्ति दस हज़ार हॉर्स पावर बताने का प्रतीक भर है)
अंतरिक्ष विज्ञान
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ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सृष्टि निर्माण का जैसा वर्णन मिलता है वह आधुनिक विज्ञान की धारणाओं के ही अनुरूप है।
वेग नामक तारे के आसमान में खिसक जाने का वर्णन कोई काव्यात्मक अतिश्योक्ति नही बल्कि वास्तविक खगोलीय घटना है। 1950 में अंतरिक्ष विज्ञानियों के एक दल ने पता लगाया था कि लगभग 13000 ईसा पूर्व में वेग नामक तारे ने खिसककर ध्रुव तारे की जगह ले ली थी।
फ्री एनर्जी सिद्धांत
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"समरांगण सूत्रधार" नामक ग्रंथ में पारे के इस्तेमाल से वायुयान निर्माण की विधि का वर्णन मिलता है। आश्चर्यजनक रूप से अमेरिकियों ने पारे की प्रयोग पर प्रयोग भी शुरू कर दिए। पारे के पॉजिटिव आयन इतनी शक्ति से नेगेटिव आयन की तरफ बढ़ते हैं कि पूरी मशीन घूमना शुरू कर देती है। अब इस सिद्धांत का प्रयोग अंतरिक्ष यान बनाने में किये जाने की तैयारी की जा रही है। (इंडियन एक्सप्रेस,12 अक्टूबर 1979)
महास्त्रों का प्रयोग महाभारत युद्ध के बाद नहीं हुआ। यहां तक कि अर्जुन ने भी अपने पोते परीक्षित को ब्रह्मास्त्र का प्रयोग नहीं सिखाया। ऐसा संभवत महाभारत युद्ध के विनाश को देखते हुए किया गया हो।जैसाकि हम पढ़ते हैं कि परीक्षित की मृत्यु ब्रह्मास्त्र के विकिरण के दुष्प्रभाव से हुई थी (टेस्ट ट्यूब बच्चों का भी चलन उस काल मे था)
सारांश
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आधुनिक युग में एटम बम के निर्माता ओपनहीमर ने भी यही किया था। प्राचीन भारतीयों ने अपने ज्ञान का औद्योगिक करण नहीं किया। यही वजह रही कि यह ज्ञान आने वाली सदियों में लुप्त हो गया। भारतीय जानते थे कि यदि संतुलन बिगड़ गया तो सभ्यताएं नष्ट हो सकती हैं।
✍🏻साभार
भारत में हजारों साल से चली आ रही मौखिक-लिखित कहानियों में कभी कभी ऐसी नायिका का जिक्र भी मिल जाता है जिसकी सहेली कोई चित्र बनाती है। कभी कभी ये लड़की राजकुमारी की सेवा में या उसकी सहेली होती है। अक्सर राजकुमारी को अपनी सहेली के बनाए इस चित्र के नायक से प्यार भी हो जाता है। किसी के रूप सौन्दर्य को देखकर “चित्रलिखित सा खड़ा रह जाना” का जुमला भी साहित्य में मिल जाता है। मानव सभ्यताओं में चित्रकारी की परंपरा हमेशा से रही है।
बाकी और सभ्यताओं से ज्यादा पुरानी होने की वजह से भारत में ये चित्रकारी की परंपरा सदियों में नहीं, हजारों साल से चलती आ रही है। घरों में बनते अल्पना-रंगोली जैसी चित्रकारी को छोड़ भी दें तो बाकायदा अभ्यास से सीखी जाने वाली दस अलग अलग चित्रकारी की विधाएं आराम से निकल आएँगी। राजपूत पेंटिंग, मुग़ल पेंटिंग या तंजावुर पेंटिंग जैसी राजघरानों के प्रश्रय में बढ़ी कला के अलावा और भी कई हैं। कालीघाट, कलमकारी, मंडाना, गोंड, मधुबनी, और फड जैसी कलात्मक विधाएं लोकजीवन में ही रची बसी होती हैं।
गोंड जैसी चित्रकला का इतिहास में भी अपना फायदा है। भीमबेटका जैसे इलाके की गुफाओं पर जो आदिमानवों के बनाये चित्र हैं, उनमें घोड़े पर शिकार भी दर्शाया गया है। वेटिकन पोषित या अन्य आयातित किस्म की विचारधाराओं पर पलते “इतिहासकारों” का रूप धरे उपन्यासकारों की आर्यन थ्योरी में ये भी छेद कर देता है। घुड़सवार और रथारूढ़ हमलावर कहीं और से आये थे और भारत में घोड़े नहीं होते थे, ऐसा इन भित्ति चित्रों को देखने के बाद कहना मुश्किल है। समाज का अलग अलग समय बदलता स्वरुप भी चित्रों में दिख जाता है।
आधुनिक भारत यानि 1850 से बाद का समय भारतीय कलाकारों के लिए अंतर्राष्ट्रीय परिचय भी लेकर आया। इस दौर में सबसे प्रसिद्ध शायद राजा रवि वर्मा ही कहे जायेंगे। वो पेंटिग को हारते जाते राजाओं के दरबार और राजाश्रय से निकाल कर आम लोगों में पहुँचाने के लिए भी जाने जाते हैं। जिस दौर में अंग्रेज कलात्मक वस्त्र बनाने वाले बुनकरों का अंगूठा काट रहे थे, उस दौर में उन्होंने प्रिंटिंग प्रेस के जरिये पौराणिक कहानियों के चित्र घर घर सुलभ करवा दिए। राजा रवि वर्मा को उनके जटायु, शकुंतला, अभिमन्यु-उत्तरा और ऐसी ही दूसरी पौराणिक कथाओं पर आधारित पेंटिंग्स से प्रसिद्धि मिली।
उन्होंने जो छापाखाना शुरू किया वो व्यावसायिक रूप से बहुत सफल नहीं था। उनके ही एक जर्मन कर्मचारी ने बाद में उसे खरीद लिया और फिर धीरे धीरे ये छापाखाना भी मुनाफे में आने लगा। सन 1972 में ये छापाखाना आग में जलकर नष्ट हो गया था, साथ ही राजा रवि वर्मा की कुछ ओरिजनल पेंटिंग्स, असली कलाकृतियाँ भी इस आग में प्रेस के साथ जल गयीं। कल को कुछ राजा रवि वर्मा की पेंटिंग्स कहीं विदेशों में किसी “निजी संकलन” में, अचानक प्रकट हों तो कम से कम मुझे तो कोई भी आश्चर्य नहीं होगा।
नैमिषारण्य में जिन कई बड़े कलाकारों से मुलाकात हुई उनमें वासुदेव कामत भी थे। उनकी कलाकृतियाँ शायद आपने अक्षरधाम मंदिर में देखी होंगी। उनका और दुसरे कई कलाकारों का मानना था कि कला की शिक्षा का अब कोई ख़ास मोल नहीं रह गया है। उससे नौकरी तो मिलती नहीं ! इस वजह से जो काबिल छात्र हैं, वो भी कला या नृत्य-संगीत जैसे विषयों के बदले दुसरे कोई आय का सतत साधन या नौकरी जुटाने वाली पढ़ाई करने में रूचि लेते हैं। हमने बड़ों के सामने कुछ नहीं कहा, लेकिन हमारा मानना जरा अलग है।
भविष्य में क्या करना है, या क्या बनना है, इसकी समझ सीधा फाइन आर्ट्स की पढ़ाई कर रहे ज्यादातर विद्यार्थियों में बहुत स्पष्ट होती है। तुलनात्मक रूप से अगर “मशरूम की तरह उग आये” इंजीनियरिंग-मैनेजमेंट कॉलेज के छात्रों से पूछें वो जीवन में क्या करना चाहता है तो उसके विचार कभी उतने स्पष्ट नहीं होते। दसवीं-बारहवीं करके आर्ट्स कॉलेज में गया अट्ठारह साल का बच्चा शायद अपना उद्देश्य मुझसे बेहतर तरीके से बता देगा। कला का ये नतीजा देखने की वजह से हम मानते हैं कि मानव से मनुष्य हो जाने के लिए कला महत्वपूर्ण है।
जहाँ चित्रकला मूर्ती बनाने जैसी विधाओं पर पाबन्दी रही हो वो लोग कभी इंसान ना हुए और ना ही हो पायेंगे। नौकरियां मिल सकें इसके उद्देश्य से पढ़ाई तो दूर की बात है, इस मकसद से तो उद्योग-धंधे भी नहीं लगाए जाते। हाँ पिछले सौ-डेढ़ सौ साल में जो धीरे धीरे नौकरी को ही रोजगार का पर्यायवाची बना दिया गया है उसका ऐसी सोच के पीछे बड़ा हाथ है। नौकरियां कितनी पैदा हुई, इस से उद्योगों की सफलता जोड़ने में जुटे पत्तल-कार बन्धु भी इस पाप में बराबर के भागीदार हैं। असल में अभिव्यक्ति के तरीकों को कुछ ख़ास परिवारों की बपौती बनाए रखने में उनका निजी हित भी छुपा होता है।
बाकी इस पूरे कला सम्बन्धी प्रकरण में याद आया कि हाल में ही पटना के चौक-चौराहों की खुली दीवारों पर कई कलाकार अपने चित्र बना गए थे। बंद कमरों की दीवारों पर टंगे होने के बदले जबतक चित्र बाहर खुले में नहीं आते, तबतक स्वीकार्यता दोबारा मिलनी भी मुश्किल है।
भारत में बरसों तक प्रचलित रहे मिथकों में से एक था “आर्यन इन्वेशन थ्योरी”। पहले तो जिसने ये थ्योरी दी उसी ने रिजेक्ट कर दी। उसके बाद इसके लिए कोई साक्ष्य भी नहीं मिले, इसलिए भी इसे बनाए रखना मुश्किल हुआ। इस थ्योरी को अम्बेडकर ने भी सिरे से ख़ारिज कर दिया था। इसके साथ साथ अम्बेडकर नाक की माप के आधार पर बनाई जातियों वाली “नेसल इंडेक्स थ्योरी” को भी ख़ारिज करते थे। अजीब सी बात है कि आज खुद को अम्बेडकरवादी बताने वाले कई लोग इस “आर्यन इन्वेशन थ्योरी” के मिथक में यकीन करते हैं।
उनमें से कुछ तो ऐसे हैं कि सीधा संसद में ऐसे “मिथक” का प्रचार करते हैं। अब बहस संसद में थी इसलिए उसपर कोई कार्यवाही नहीं हो सकती। यही दूसरे “मिथक” की याद दिला देता है। इस दूसरे “मिथक” में कहा जाता है कि कानून की नजर में सभी भारतीय नागरिक बराबर है! अगर ये “मिथक” सच होता तो जिस बात के लिए मेरे ऊपर एक असंवैधानिक काले कानून के जरिये मुकदमा हो सकता है, वैसे ही सांसद पर भी लागु होते। ऐसे ही मिथकों में से एक ये भी है कि अमीर व्यापारियों पर टैक्स लगाकर गरीबों तक पैसा पहुँचाया जायेगा!
टैक्स के नियम एक वेतनभोगी और एक व्यापारी के लिए ठीक उल्टे होते हैं। एक नौकरीपेशा आदमी के लिए उसकी तनख्वाह वो रकम है जो टैक्स काट कर मिलती है। उसपर टीडीएस यानि टैक्स डिडकटेड एट सोर्स लगता है। व्यापारी पूरे साल खर्च करने के बाद दिखाता है कि उसके पास मुनाफा बचा, वो उस मुनाफे पर टैक्स देता है। जैसे ही उसे लगेगा कि उसे ज्यादा मुनाफा हो गया है, वो उस मुनाफे के पैसे को पहले ही अपने ऑफिस के लिए कंप्यूटर/एसी लेकर या कंपनी के डायरेक्टर (खुद) के लिए कार लेकर खर्च कर दे तो कौन सा बढ़ा हुआ टैक्स उसपर लागू होगा? जीएसटी में लगातार टैक्स भरते रहने के कारण मुनाफे को रोककर उसे बाद में खर्च दिखा देना मुश्किल होता है। इसलिए भी जीएसटी से दिक्कत है।
कल पटना लिटरेचर फेस्टिवल में श्री नरेन्द्र कोहली जी की चर्चा का विषय “आधुनिकता” और “मिथक” पर बातचीत था। उन्होंने शुरुआत एक प्रचलित “मिथक” से की जिसके मुताबिक कहा जाता है कि हिन्दी के पाठक घटते जा रहे हैं। उन्होंने पूछा कि इसकी जांच के लिए कौन से सर्वेक्षण करवाए गए? कैसे पता चला कि हिन्दी के पाठक पहले ज्यादा थे और अब कम? प्रकाशकों की गिनती हर साल बढ़ती ही है, उनके बंगले ऊँचे होते जाते हैं, उनकी अगली पीढ़ियाँ इसी व्यवसाय में आ रही हैं। जाहिर है कि सच्चाई, पाठकों के कम होने वाले “मिथक” से कहीं कोसों दूर खड़ी है।
बाकि उन्होंने इससे आगे भी काफी कुछ कहा था, जिसका जिक्र हम जाने दे रहे हैं।