गीता जयंती पर विशेष:पूर्ण विज्ञान-ग्रन्थ है श्रीमद्भगवतगीता


श्रीमद्भगवतगीता की व्याख्याओं का अंत नहीं है । इस ग्रन्थ के 18 अध्यायों में वैचारिक-स्तर के विविध-योग पर सूक्ष्म दृष्टि डालने पर प्रतीत होता है कि अर्जुन की जिज्ञासाओं के समाधान का यह ग्रन्थ है । महाभारत के भीष्मपर्व के बीच श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद का प्रथम अध्याय अर्जुनविषाद योग है तो अंतिम 18वां अध्याय मोक्षसंन्यास योग है । पहले अध्याय में नेत्रविहीन धृतराष्ट्र के युद्ध परिणाम जानने की जिज्ञासा का समाधान 18वें अध्याय में संजय द्वारा किया जाता है ।


आधुनिक टेक्नोलॉजी
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 धृतराष्ट्र की नेत्रविहीनता का आशय अंधकार और वह भी मन के भटकाव का सूचक है तो अंतिम 18वें अध्याय के अंतिम श्लोक में संजय 'जहां कृष्ण और अर्जुन हैं, वहीं श्री, विजय, विभूति है' का उत्तर देते हुए समाधान प्रस्तुत करते हैं । कृष्ण योगेश्वर हैं तो संजय का यह उत्तर सार्थक लगता है कि योग के जरिए यदि मूलाधार से लेकर सहस्रार तक के चक्रों को जागृत कर लिया जाए तो यह शरीर रूपी पृथ्वी जो 'सुर-दुर्लभ सब ग्रन्थन गावा' कहा गया है, वह शतप्रतिशत लागू हो जाएगा ।


   क्योंकि अंतिम श्लोक में अर्जुन के लिए पार्थ शब्द का प्रयोग हुआ है यानी पृथ्वीपुत्र अर्जुन पहले अध्याय में विषाद नहीं बल्कि अपने जिज्ञासु स्वरूप को संपूर्ण पुरुष कृष्ण के समक्ष प्रकट करते हैं । युद्ध के मैदान में अर्जुन के विषाद के पीछे श्रीकृष्ण से उस टेक्नोलाजी को जानने की कोशिश है कि मुख्य आरोपी गिरफ्त में आ जाएं और भारी खून-खराबा न होने पाए ।


    इसका संकेत महाभारत ग्रन्थ के 295वें अध्याय (भीष्म पर्व) में भगवान श्रीकृष्ण के दोनों सेनाओं के बीच सेना खड़ी होने के पूर्व ही तब मिलता है, जब भीष्म द्वारा कौरवों की सुसज्जित सेना को देखकर युधिष्ठिर विचलित होते हैं, उस वक्त अर्जुन ने देवासुर संग्राम का जिक्र किया तथा ब्रह्मा जी द्वारा इंद्र आदि देवताओं को दिए गए उपदेश का उल्लेख किया । अर्जुन ने उक्त उपदेश के क्रम में कहा कि युद्ध में जीत के लिए बड़ी सेना का कोई मतलब नहीं होता बल्कि अभिमान शून्यता के साथ धर्म, बुद्धि और गुण से बड़ी सेना को छोटी सेना से भी जीता जा सकता है ।


    इसी मन्त्रणा के बीच जब श्रीकृष्ण रथ दोनों सेना के बीच खड़ी करते हैं तब निश्चित रूप से सगे संबंधियों और पुत्र स्वरूप बच्चों को देखकर अर्जुन को यह जरूर प्रतीत हुआ कि गैरों के साथ युद्ध की टेक्नोलॉजी और अपनों के साथ युद्ध की टेक्नोलॉजी में अंतर होना चाहिए । यानी विदेश युद्ध तथा गृहयुद्ध का मामला यहां खड़ा होता है । पराए राष्ट्र से युद्ध में परमाणु बम आदि इस्तेमाल किए ही जाने चाहिए लेकिन आंतरिक मामलों में फर्क होना चाहिए । कम अस्त्र-शस्त्र से युद्ध नियंत्रित हो तो वह उचित और विवेकपूर्ण माना जाता है ।


    अर्जुन को मालूम था कि श्रीकृष्ण ज्ञान-विज्ञान के पूर्ण ज्ञाता हैं और उनसे वर्तमान युग में इस्तेमाल होने वाले ड्रोन हमले जैसी टेक्नोलॉजी से युद्ध के लिए विचार-विमर्श करना ही चाहिए । यही सोच कर विचार विमर्श तथा कम हानि में युद्ध की संभावनाओं पर चर्चा होती है । इस चर्चा का ही फल था कि श्रीकृष्ण ने अपने उस विराट रूप को दिखाया जिसे अबतक किसी ने नहीं देखा था । यह श्रीकृष्ण भी कहते हैं और संजय ने भी धृतराष्ट्र से ऐसा ही कहा ।


   श्रीकृष्ण ने जिस विराट रूप का दर्शन कराया उसकी तुलना 21वीं शताब्दी के हाईटेक कम्प्यूटरीकृत विज्ञान से किया जा सकता है जिसमें पाताल से लेकर ब्रह्मांड तक दिखाई पड़ा । श्रीकृष्ण ने इस ज्ञान की पूरी जानकारी अर्जुन को दी । इस तरह श्रीमद्भगवतगीता को एक जिज्ञासु को दिए गए ज्ञान का ग्रन्थ कहा जाए तो उचित होगा । गुरु दुर्लभ ज्ञान जिज्ञासु शिष्य को ही देता है ।


मूलाधार से सहस्रार चक्र तक पहुंचने की साधना
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     इसके अलावा इस ग्रन्थ में अनेकानेक बार श्रीकृष्ण इन्द्रिय, मन, शरीर की चर्चा अर्जुन से करते हैं कि इन्हें ही साध लेने वाला सच्चा साधक होता है । यदि  श्रीकृष्ण के इन संकेतों पर ध्यान दिया जाए तो ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियां 10 होती हैं, एक मन होता है तथा योगशास्त्र के अनुसार 7 चक्र होते हैं । इनका योग  18 होता है ।


   18 अध्याय के उपदेश का आशय इन 18 अवयवों को साधने की जरूरत से निकलता है । महाभारत ग्रन्थ में भी कुल 18 पर्व आते हैं । युद्ध के मैदान में कौरवों के पास 11 तथा पांडवों के पास 7 कुल 18 अक्षौहिणी सेना का संकेत भी उक्त अवधारणा को पुष्ट करता है । पांडवों के इन सात अक्षौहिणी सेना को साधने का मतलब मूलाधार से सहस्रार तक सातों चक्रों को जागृत करने से है ।


   इस स्थिति में कोई भी पांडव जैसा श्रीकृष्ण का सखा हो सकता है तथा इस शरीर रूपी रथ की लगाम विवेक रूपी श्रीकृष्ण के हाथों में आ जाती है, वरना भौतिकता में अंधा डूबा मन धृतराष्ट्र बन जाता है और उससे निकलने वाले पुत्र रूपी भाव और कार्य दुर्योधन की सेना जैसे हो जाते हैं  । 
    इसलिए गीता के अध्ययन-मनन के समय अर्जुन के विषाद के पीछे छुपे भाव को समझने की कोशिश होनी चाहिए । सम्भवतः श्रीकृष्ण इस हाई टेक्नोलॉजी को किसी और मौके पर देना चाहते रहे हो, इसलिए कहीं कहीं अर्जुन की नपुंसक आदि कह दिया लेकिन अर्जुन की प्रबल जिज्ञासा के आगे गुरु की भूमिका में मार्गदर्शन करने वाले श्रीकृष्ण को अर्जुन को वृहद ज्ञान देना पड़ा ।
-सलिल पांडेय, मिर्जापुर ।