सम्पादकीय !यौन मनोरोगियों का देश !

सम्पादकीय !यौन मनोरोगियों का देश !


   अरुण कुमार सिंह(सम्पादक)!लखनऊ।देश के कोने-कोने से जिस तरह नन्ही-नन्ही बच्चियों और किशोरियों के साथ सामूहिक बलात्कार और उनकी नृशंस हत्याओं की खबरें आ रही हैं, उससे पूरा देश सदमे में है. स्त्रियों को तो छोड़िये, अब तो गाय और बकरियां भी सुरक्षित नहीं है इस देश में.


क्या कभी आपने सोचा है कि आज देश में बलात्कार के लिए फांसी और उम्रकैद सहित कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान होने के बावज़ूद स्थिति में कोई बदलाव क्यों नहीं आ रहा है ?


हाल के दिनों में ऐसी असंख्य लोमहर्षक ख़बरों के साथ सरकारी संरक्षण में चल रहे मुजफ्फरपुर के बालिका गृह में चौंतीस बच्चियों के साथ बालिका गृह के संचालकों और उनके सरपरस्त नेताओं द्वारा सालों से निरंतर बलात्कार और नृशंस यातनाओं की खबरों ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया है. ऐसा लग रहा है जैसे हम यौन मनोरोगियों के देश में हैं जिसमें रहने वाली समूची स्त्री जाति के अस्तित्व और अस्मिता पर घोर संकट उपस्थित है.



आज यह सवाल हर मां-बाप के मन में है कि इस वहशी समय में वे कैसे बचाएं अपनी बहनों-बेटियों को ? उन्हें घर में बंद रखना समस्या का समाधान नहीं. अपनी ज़िंदगी जीने का उन्हें पूरा हक़ है. वे सड़कों पर, खेतों में, बसों और ट्रेनों में निकलेंगी ही. हर सड़क पर, हर टोले-मोहल्ले में, हर स्कूल-कालेज में पुलिस की तैनाती संभव नहीं है. आमतौर पर क़ानून और पुलिस का डर ही लोगों को अपराध करने से रोकता है. यह डर तो अब अब रहा नहीं. वैसे भी हमारे देश के क़ानून में जेल, बेल, रिश्वत और अपील का इतना लंबा खेल है कि न्याय के इंतज़ार में एक जीवन खप जाता है. दरिंदों के हाथों बलात्कार की असहनीय शारीरिक, मानसिक पीड़ा और फिर अमानवीय मौत झेलने वाली देश की हमारी बच्चियों और किशोरियों के लिए हमारे भीतर जितना भी दर्द हो, हमारी व्यवस्था के पास उस दर्द का क्या उपचार है ?


संवेदनहीन पुलिस, सियासी हस्तक्षेप, संचिकाओं में वर्षों तक धूल फांकता दर्द, भावनाशून्य न्यायालय, बेल का खेल और तारीख पर तारीख का अंतहीन सिलसिला. सालों की मानसिक यातना के बाद निचले कोर्ट का कोई फैसला आया भी तो उसके बाद उच्च न्यायालय और फिर उच्चतम न्यायालय. और यह सब कुछ हो जाने के बाद देश के महामहिम के पास ऐसे मामलों में होने वाले राजनीतिक नफ़ा-नुकसान की पड़ताल के लिए लंबे अरसे तक लंबित दया याचिकाएं ! इक्का-दुक्का चर्चित मामलों को छोड़ दें तो देश के थानों और न्यायालयों में बलात्कार के लाखों मामलों की संचिकाएं बरसों, दशकों से धूल फांक रही हैं.



स्थिति विस्फोटक हो चुकी है. लोगों का धैर्य भी जवाब देने लगा है. आज की बेहद डरावनी परिस्थितियों में इस बात की पूरी आशंका है कि लोग क़ानून को अपने हाथ में लेकर सड़कों पर बलात्कारियों को अपने मन मुताबिक़ सजा न देने लगें. वैसे भी इन दिनों देश में क़ानून पर भीड़तंत्र हावी है.


   इस्लामी कानूनों के मुताबिक़ एकदम संक्षिप्त सुनवाई के बाद बीच चौराहों पर लटकाकर इन हैवानों को मार डालना एक कारगर क़दम हो सकता है, पर दुर्भाग्य से हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह संभव नहीं. वक़्त आ गया है कि इस समस्या पर गंभीरता से सोचा और रास्ता निकाला जाय.


   पुलिस और न्यायालयों की संवेदनहीनता और उदासीनता के अलावा बलात्कार को देखने का हमारा नजरिया और उसकी रोकथाम के प्रयासों की हमारी दिशा ही शायद गलत है


   क़ानून की अपनी क़ानून की अपनी सीमाएं हैं. तो हम क्या करें  ? देश की अपनी बहनों-बेटियों के साथ पाशविकता का यह खेल चुपचाप देखते रहें ? कुछ लोग गुस्से में यहां तक सोचने लगे हैं कि लड़कियों को गर्भ में या उनके पैदा होते ही मार डाला जाय. समझा जा सकता है कि ऐसी प्रतिक्रियाओं के पीछे बेटियों के मां-बाप का का डर और गुस्सा ही है. 


  बलात्कार की मानसिकता बनाने में स्त्री को भोग और मज़े की चीज़ के रूप में परोसने में ऐसी अश्लील फिल्मों की बड़ी भूमिका है. स्त्रियों के साथ यौन अपराध पहले भी होते रहे थे, लेकिन इन फिल्मों की सर्वसुलभता के बाद बलात्कार के आंकड़े आसमान छूने लगे हैं. इन फिल्मों का सेक्स सामान्य नहीं है. यहां आपकी उत्तेजना जगाने के लिए अप्राकृतिक सेक्स, जबरन सेक्स, हिंसक सेक्स, सामूहिक सेक्स, चाइल्ड सेक्स और पशुओं के साथ सेक्स भी हैं.


 


    हद तो यह है ये फिल्में अगम्यागमन अर्थात पिता-पुत्री, मां-बेटे, भाई-बहन के बीच भी शारीरिक रिश्तों के लिए भी उकसाने लगी हैं. सब कुछ खुल्लम-खुल्ला. इंटरनेट पर क्लिक कीजिये और सेक्स का विकृत संसार आपकी आंखों के आगे है. परिपक्व लोगों के लिए ये यह सब मनोरंजन और उत्तेजना के साधन हो सकते हैं, लेकिन अपरिपक्व और कच्चे दिमाग के बच्चों, किशोरों, अशिक्षित या अल्पशिक्षित युवाओं पर इसका जो दुष्प्रभाव पड़ता है उसकी कल्पना भी डराती है.


स्त्री देह पर अनंत वर्जनाओं का आवरण डालकर उसे रहस्यमय बना देने वाली हमारी संस्कृति में ऐसी फिल्मों और साहित्य के आदी लोग अपने दिमाग में सेक्स का एक ऐसा काल्पनिक संसार बुन लेते हैं जिसमें स्त्री व्यक्ति नहीं, देह ही देह नज़र आने लगती है. देह भी ऐसी जहां उत्तेजना और मज़े के सिवा कुछ भी नहीं.


   नशा ऐसे लोगों के लिए तात्कालिक उत्प्रेरक का काम करता है जो लिहाज़ और सामाजिकता का झीना-सा पर्दा भी गिरा देता है. मुझे कभी कोई ऐसा बलात्कारी नहीं मिला जिसने बिना किसी नशे के यह कुकृत्य किया हो. यह मत कहिए कि मां-बाप द्वारा बच्चों को नैतिक शिक्षा और अच्छे संस्कार देना इस समस्या का हल है.


    स्त्रियों के प्रति पुरुषों की मानसिकता में परिवर्तन की जो बात की जाती है, वह यूटोपिया के सिवा कुछ नहीं. मोबाइल और इंटरनेट के दौर में ज्यादातर बच्चे मां-बाप से नहीं, यो यो हनी सिंह, सनी लिओनी और गूगल पर मुफ्त में उपलब्ध असंख्य अश्लील वीडियो क्लिप से ही प्रेरणा ग्रहण करेंगे. गूगल पर बलात्कार के लिए उकसाते ब्लू फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगाने की इच्छाशक्ति और साहस हमारी सरकार में नहीं है. 


अगर बलात्कार पर काबू पाना है तो बलात्कारियों के खिलाफ एक तय समय सीमा में अनुसंधान, ट्रायल और सजा के कठोर प्रावधानों के अलावा बेहद आसानी से ऑनलाइन उपलब्ध अश्लील सामग्री को कठोरता से प्रतिबंधित करने के सिवा कोई रास्ता नहीं है.


 


   कुछ लोगों के लिए अश्लील फ़िल्में देखना उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मसला हो सकता है, लेकिन जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता सामाजिक नैतिकता और जीवन-मूल्यों को तार-तार कर दे, वैसी स्वतंत्रता को निर्ममता से कुचल देना ही हितकर है.