रायगंज संसदीय क्षेत्र के एक गांव में हिंदू मतदाताओं को मतदान केंद्र की ओर जाने से रोक दिया गया और उनके नाम पर फर्जी वोट डाल दिए गए.मतदान केंद्र पर जा रहे हिंदुओं पर मुसलमानों ने हमला भी किया.
जैसी संभावना थी, वैसे ही पश्चिम बंगाल के हालात ठीक नहीं है। लोकसभा चुनाव का दूसरा चक्र समाप्त होते-होते पूरे राज्य में अनेक स्थानों पर हिंसक घटनाएं हो चुकी हैं। अलबत्ता, पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसक घटनाएं हमेशा शामिल रही हैं और शेष देश से अलग यहां ऐसी घटनाओं पर लोगों को बहुत ज्यादा आश्चर्य भी नहीं होता। चाहे 60 का दशक रहा हो या फिर भारी अफरातफरी के दौर वाला 70 का दशक या लगातार 34 सालों तक प्रभावी रहा वाम मोर्चे का शासन रहा हो या पिछले सात सालों से चल रहा तृणमूल का दौर, स्थानीय स्तर पर प्रभुत्व बनाए रखने के लिए हिंसा और खूनखराबा यहां आम बात रही है।
लेकिन पिछले कुछ दिनों में एक खास नई बात हुई है। यह ऐसी बात है जो तत्कालीन मुस्लिम लीग के साथ हुए भयानक झगड़ों और मारकाट के बाद 20 जून 1947 को पश्चिम बंगाल के अस्तित्व में आने के बाद से आज तक नहीं हुई थी – असंदिग्ध रूप से प्रामाणिक भारतीय हिंदुओं को मतदान न करने देना। कारण? सुनते हैं कि यहां मजहबी अनुपात इस महासंकट का कारण बन गया है।
साफ-साफ बात करें तो ऐसी घटनाएं बृहस्पतिवार को दूसरे दौर के मतदान के समय रायगंज संसदीय क्षेत्र में हुईं। जब देश में उत्साह से मतदान चल रहा था उस समय इस संसदीय क्षेत्र के एक गांव में हिंदू मतदाताओं को मतदान केंद्र की ओर जाने से रोक दिया गया और उनके नाम पर फर्जी वोट डाल दिए गए। इसका पता मतदाताओं को तब चला जब वे सारी बाधाओं से जूझते हुए मतदान केंद्र पर पहुंचे। अब तक कोई भी बंगालवासी इसे बेहद सामान्य बात ही मानता, लेकिन इस गांव के ग्रामीण अतीत के ऐसे अनुभवों को चुपचाप सह लेने वालों से अलग निकले और उन्होंने इस स्थिति का विरोध करते हुए बताया कि उन्हें भारतीय जनता पार्टी का पक्षधर समझे जाने के कारण सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और उसके इस्लामवादी समर्थक उन्हें कोई मौका नहीं देना चाहते थे।
हिंदुओं की सफलता तृणमूल को संकट में डाल सकती थी क्योंकि कई इस्लामवादी संगठन भी उसे बिलकुल नहीं पसंद करते। बबलू बैरागी (बदला हुआ नाम) के मुताबिक ग्रामीण इस बात से भी आशंकित थे कि उन्हें मतदान करने से रोके जाने के अलावा वहां साम्प्रदायिक संघर्ष भी संभव था। एक अन्य ग्रामीण सुशांत दास के अनुसार जब वह अपनी पत्नी के साथ मतदान केंद्र की ओर जा रहा था तो उस पर कुछ मुसलमानों ने हमला कर दिया।
यह मुस्लिम-बहुल गांव तृणमूल कांग्रेस के प्रति झुकाव रखता है। चूंकि पूरे राज्य में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के कारण वातावरण काफी विषाक्त हो चला है, राज्य में सत्तारूढ़ दल वास्तविक लोकतांत्रिक निर्वाचन की संभावना को मौका नहीं दे सकता। ग्रामीण ने बताया कि उनके साथ गाली-गलौज करने के अलावा उन्हें गंभीर परिणामों की चेतावनी दी गई थी। इस गांव में हिंदू अल्पसंख्यक हैं, ऐसे में उन्हें मतदान से वंचित रहना पड़ा।
सवाल है कि इस दौरान मतदान अधिकारी क्या कर रहे थे। वहां तैनात एक अधिकारी ने विवशता की बात कही है तो पीठासीन अधिकारी को बिना मतदाताओं की पहचान किए उन्हें मतदान करने देने में लिप्त पाया गया। इस बारे में भारतीय जनता पार्टी की बंगाल राज्य इकाई ने निर्वाचन आयोग से तृणमूल सरकार के मनमानेपन और हिंसा को प्रोत्साहित करने की घटनाओं की शिकायत की है। रायगंज कोरोनेशन हाई स्कूल में तृणमूल कार्यकर्ताओं द्वारा बूथ कैप्चरिंग की कोशिशों के बारे में बताते हुए, भाजपा उम्मीदवार देबाश्री चौधरी ने भी विरोध जताया है कि, '' तृणमूल कार्यकर्ता बूथ पर कब्जा करने की कोशिश के अलावा वहां मुसलमानों के बीच प्रचार कर रहे थे।"
यह भी कहा जा सकता है कि इस बार माकपा को भी सालों तक अपना हथियार रही हिंसा का शिकार होना पड़ा है। बीते दिन रायगंज में माकपा उम्मीदवार मोहम्मद सलीम के काफिले पर भी अज्ञात, नकाबपोश लोगों के झुंड ने पथराव किया और गोलियां चलाईं। खैर, सीपीआईएम सांसद मौके से बच निकले।
इस बीच, दार्जिलिंग संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले चोपड़ा में भी लगातार हिंसक घटनाएं हुई हैं। दशकों से साम्प्रदायिक खींचतान के लिए कुख्यात इस विधानसभा क्षेत्र में प्रदेश के कई अन्य स्थानों की ही तरह भी हिंसा की घटनाएं हुई हैं जिनमें कक्षा 7 का एक छात्र गोली लगने से गंभीर रूप से घायल हो गया। यहां हिंसक झड़पों का दौर जल्दी खत्म होने की कोई संभावना नहीं नजर आ रही है। सत्तारूढ़ तृणमूल सभी विरोधियों को एकसाथ निपटाने के फेर में है तो विरोधी दलों पर खुद को और अपनों को बचाने का दबाव है। ऐसे में सभी पक्ष पूरी ताकत से जूझ रहे हैं।
चोपड़ा विधानसभा क्षेत्र में एक गांव से शुरू हुई हिंसा गुस्साई भीड़ द्वारा राष्ट्रीय राजमार्ग की नाकाबंदी करने के बाद अचानक जंगल की आग की तरह चारों ओर फैल गई।
हंगामा कर रही भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस के पास लाठीचार्ज और आंसू गैस के गोले दागने के कोई सिवाय कोई और रास्ता नहीं था। बताया जा रहा है कि हिंसा भड़कने के पीछे गुंडों का गुट था जिसने दिगिरपार मतदान केंद्र पर स्थानीय लोगों को वोट डालने से रोकने की कोशिश की थी। गुंडों ने मतदाताओं से उनके पहचान पत्र छीनने का प्रयास भी किया था।
पहले ही कहा जा चुका है कि हिंसा बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य का अविभाज्य हिस्सा बन गई है और जानमाल के नुकसान के बगैर इस राज्य में निर्वाचन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। निस्संदेह यह भारत के संविधान के सिद्धांतों के खिलाफ है, लेकिन इस दुर्भाग्यपूर्ण सच से आंखें बंद नहीं की जा सकतीं।
मार्क्सवादियों का चलाया सिद्धांत कि "राजनीतिक शक्ति बंदूक की नली से निकलती है" राज्य में गहराई तक बैठ चुका है और कभी ज्वालामुखी कहे जाने वाले इस राज्य में वास्तविक लोकतंत्र को बहाल करने के लिए अत्यंत गंभीर उपायों की आवश्यकता है। राज्य में संसदीय चुनाव का अभी केवल दूसरा चरण हुआ है और आशंका है कि आगे के चक्रों में स्थिति और खराब होगी। बहुतों को आशंका है कि अगर केंद्रीय बलों को बहुत सावधानी से किए गए विश्लेषण के अनुसार नहीं तैनात किया जाता तो बंगाल हिंसा की बाढ़ में बह जाएगा।साभार